Wednesday, January 25, 2012

चमड़ी की चाह, प्यार का ढोंग!

स्पर्श के मोहताज हम तुम,
चमड़ी को चाहने वाले..
सुरंग तक की बस चाहें दौड,
या मांगे बांस की मार...

बीस मिनट का नाच,
फिर दस मिनट का जश्न.
दो पल का जादू,
फिर सुकून की लंबी सांस.

इसी मोह में,
सारे पहर,
दिन, दोपहर, शाम...

नस फाड़, कमर तोड़, छाती चीर,
खींचना है किसी तरह, कामना के कुए से,
सबको वही जाम.

बाज़ार से हो या व्यहवार से,
सोना चाहें बस किसी के साथ...

सारी दौड़, सारा पसीना,
आशिक और हसीना,
सब बिस्तर के नाम.

पर बोर्ड लटका है प्यार का,
सबके कमरों में,
अपने यार के नाम!

निकल आओ नकाबों से,
अश्लील कहलाती किताबों से,
उठा लो सत्य की ठेकेदारी,
समाज के ठेकेदारों के नाम!

शरीर जो कहता है
उसे भी पाक समझो
कम से कम अकेलेपन में,
खुद को बेनकाब समझो..

कम से कम अकेलेपन में,
खुद को बेनकाब समझो...

- घुमंतू पंछी

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