Friday, April 20, 2012

सीमेंट की बोरियां


हमेशा महसूस नहीं होता है यूं, जो कि आजकल की दास्तान है. साला, मरे जाओ इस तरह जीने के लिए, पर ये मरी जिंदगी कंजूसी की कलम पकडे लिखते रहती है हमारे नसीब को. और जब ऐसा महसूस होता भी है तो लगता है कि कमबख्त जान ले लेगा ये सब.

जब लगता है कि जैसे सीमेंट की बोरियां लदी हुई हैं छाती पे! दिमाग में सल्फ्यूरिक एसिड जैसा उबाल, नसों में बर्फ सी ठंडक और ऐसे रोमांच का एहसास जो पथरीली नदियों के पागल बहाव को चीरने पर भी ना मिले. शब्द भी ऐसे निकलते हैं मन से, मानो बेलगाम हाथी गाँव में ग़दर मचा रहे हों. देखो ना, यहीं इतना बौखलाए हुए से लग रहे हैं. जैसे कि अपनी मर्ज़ी से उभर रहे हों कागज पे, और खुद ही दरवाज़ा खोल रहे हों पढ़ने वाले के दिल का.

कहाँ से आता है ये सब? किस मैदान को पार करना होता है यहाँ तक पहुँचने के लिए? आखिर कौन सी ऎसी चिंगारी है जिसकी चाह में जिंदगियां गुज़र जाती हैं, जिसके इंतज़ार में मौसम के चक्कर साले घूम घूम के बोर कर डालते हैं मन को! पर मिलता है तभी जब उस कंजूस कलम की स्याही तक को दया आ जाती है हम पे. उधेड़बुन तो इसे तब कहते, जब ऎसी कोई बात होती जिसके बारे में सोचने पर दोराहे, तिराहे, चौराहे निकल पड़ते मन की पगडंडियों से. पर मन तो सब जानता है, सब समझता है. और सब जानते हुए, सब समझते हुए इंतज़ार होता है उस पल का जब सब बेकाबू हो जाए. और ऐसे भटकने में मज़ा आने लगे.

कई बार दिल लगा किसी से. जितनों से भी लगा, सबके लिए क़द्र थी दिल में. और शरीर तो सबसे कमज़ोर कड़ी होता है, हमेशा फिसला. कई बार बिचारे ने मन के बवंडर की अगुआई भी की. पर ऐसा सीमेंट की बोरियों वाला हाल, ऐसा अनोखा एहसास कुछ एक बार ही हुआ. और इसी एहसास ने हमेशा जिंदगी में मज़े की उम्मीद जगाए रखी. कभी स्वार्थी बनाया, तो कभी सब कुछ लुटा देने की खुशी से मिलवाया.

आज इसका दिन है. नचा रहा है मुझे. लोहे की कील पर फिरकते लकड़ी के लट्टू की तरह. रस्सी भी इसी के हाथ में है. इतना कमीना है ये एहसास, कि उस इंसान से भी मेरे मन की लगाम छीन लेता है जिसने इसे मेरे मन में जन्म दिया है. दूर से ही सलाम है बॉस!

जिंदगी ने इतना तो समझा ही दिया है, कि उस पार बेटा कुच्छ नहीं है! जो है, सो ऐसे ही बाँवरे लम्हों में है. आज जो छाती पर रखी हैं, उन सीमेंट की बोरियों में.
-    घुमंतू पंछी.

मैं अपना यार



मैं बस अपना ही साथी हूँ
खुद ही में डूबा हुआ
दोस्त दिल और दारू मैं ही
जग मुझसे छूटा हुआ

बाँट चुका बहुत खुशियाँ
काट चुका कुछ अपनी दुनिया
अब तो आशिक भी मैं अपना, दलाल भी हूँ
माशुका भी मैं खुद की, रांड भी हूँ

किसी तो अड्डे पर पहुंचना चाहूँ
जाने किस नशे में डूबना
जिंदगी बोर मरती है आजकल
जाने कौन सा है रस चूसना

दोस्त दिल और दारू खुद ही
मैं अपना लंगोटिया यार भी हूँ
ढोलक ढफली तबला खुद ही
धडकन से बजती गिटार भी हूँ

पागलपन तो कबसे गुज़र गया मुझे छू के
खाई पे चलता राही
मौत सी मस्ती का यार भी हूँ

              -घुमंतू पंछी