Sunday, May 13, 2012

Childhood anthem! (Sometime in 2007)


शायद वही ज़माना अच्छा था,
जब साला मैं भी छोटा बच्चा था!
प्लेग्राउंड की धूल हुआ करती थी अपनी गर्लफ्रेंड,
अपने जैसे ही थे अपने सारे फ्रेंड्स!

शराफत से चिल्लर बचाता था मैं,
धूप में काला होकर घर आता था मैं!

हर सुबह दौड़ के बस पकड़ना अपना एडवेंचर था,
तब दिमाग में ना स्टॉक मार्केट
ना कोई जोइंट वेंचर था!

मैं भी था तब अपनी क्लास का टॉपर,
कहते थे सब, हाए स्मार्टी, हाए सिंगर!

मुझे भी पहला कृश स्कूल में ही आया था,
नन्हे बाईसेप्स पे मैंने टैटू छपवाया था!

गर्ल्स का अटेंशन पाना था अपना पहला मिशन,
किसे पता था क्या होता है डिप्रेशन!

हम बेक बेन्चर्स का हमेशा यही नारा था,
कि स्कूल का बेस्ट क्लास हमारा था!

स्पोर्ट्स डे पे होती थी लड़कियां इम्प्रेस,
रिजल्ट के दिन होती थी अपने को भी स्ट्रेस!

क्या पता जिंदगी बचपन वापस कब लाएगी,
कब मम्मी मेरे फटे पैंट सिलवाएगी!
सच ही कहा है किसी ने,
कि बचपन भोला होता है,
फिर तो सारी लाइफ झमेला होता है...

याद रहेगा मुझे मेरा बचपन हर दम,
यही है मेरा चाइल्डहुड एंथम!

Friday, April 20, 2012

सीमेंट की बोरियां


हमेशा महसूस नहीं होता है यूं, जो कि आजकल की दास्तान है. साला, मरे जाओ इस तरह जीने के लिए, पर ये मरी जिंदगी कंजूसी की कलम पकडे लिखते रहती है हमारे नसीब को. और जब ऐसा महसूस होता भी है तो लगता है कि कमबख्त जान ले लेगा ये सब.

जब लगता है कि जैसे सीमेंट की बोरियां लदी हुई हैं छाती पे! दिमाग में सल्फ्यूरिक एसिड जैसा उबाल, नसों में बर्फ सी ठंडक और ऐसे रोमांच का एहसास जो पथरीली नदियों के पागल बहाव को चीरने पर भी ना मिले. शब्द भी ऐसे निकलते हैं मन से, मानो बेलगाम हाथी गाँव में ग़दर मचा रहे हों. देखो ना, यहीं इतना बौखलाए हुए से लग रहे हैं. जैसे कि अपनी मर्ज़ी से उभर रहे हों कागज पे, और खुद ही दरवाज़ा खोल रहे हों पढ़ने वाले के दिल का.

कहाँ से आता है ये सब? किस मैदान को पार करना होता है यहाँ तक पहुँचने के लिए? आखिर कौन सी ऎसी चिंगारी है जिसकी चाह में जिंदगियां गुज़र जाती हैं, जिसके इंतज़ार में मौसम के चक्कर साले घूम घूम के बोर कर डालते हैं मन को! पर मिलता है तभी जब उस कंजूस कलम की स्याही तक को दया आ जाती है हम पे. उधेड़बुन तो इसे तब कहते, जब ऎसी कोई बात होती जिसके बारे में सोचने पर दोराहे, तिराहे, चौराहे निकल पड़ते मन की पगडंडियों से. पर मन तो सब जानता है, सब समझता है. और सब जानते हुए, सब समझते हुए इंतज़ार होता है उस पल का जब सब बेकाबू हो जाए. और ऐसे भटकने में मज़ा आने लगे.

कई बार दिल लगा किसी से. जितनों से भी लगा, सबके लिए क़द्र थी दिल में. और शरीर तो सबसे कमज़ोर कड़ी होता है, हमेशा फिसला. कई बार बिचारे ने मन के बवंडर की अगुआई भी की. पर ऐसा सीमेंट की बोरियों वाला हाल, ऐसा अनोखा एहसास कुछ एक बार ही हुआ. और इसी एहसास ने हमेशा जिंदगी में मज़े की उम्मीद जगाए रखी. कभी स्वार्थी बनाया, तो कभी सब कुछ लुटा देने की खुशी से मिलवाया.

आज इसका दिन है. नचा रहा है मुझे. लोहे की कील पर फिरकते लकड़ी के लट्टू की तरह. रस्सी भी इसी के हाथ में है. इतना कमीना है ये एहसास, कि उस इंसान से भी मेरे मन की लगाम छीन लेता है जिसने इसे मेरे मन में जन्म दिया है. दूर से ही सलाम है बॉस!

जिंदगी ने इतना तो समझा ही दिया है, कि उस पार बेटा कुच्छ नहीं है! जो है, सो ऐसे ही बाँवरे लम्हों में है. आज जो छाती पर रखी हैं, उन सीमेंट की बोरियों में.
-    घुमंतू पंछी.

मैं अपना यार



मैं बस अपना ही साथी हूँ
खुद ही में डूबा हुआ
दोस्त दिल और दारू मैं ही
जग मुझसे छूटा हुआ

बाँट चुका बहुत खुशियाँ
काट चुका कुछ अपनी दुनिया
अब तो आशिक भी मैं अपना, दलाल भी हूँ
माशुका भी मैं खुद की, रांड भी हूँ

किसी तो अड्डे पर पहुंचना चाहूँ
जाने किस नशे में डूबना
जिंदगी बोर मरती है आजकल
जाने कौन सा है रस चूसना

दोस्त दिल और दारू खुद ही
मैं अपना लंगोटिया यार भी हूँ
ढोलक ढफली तबला खुद ही
धडकन से बजती गिटार भी हूँ

पागलपन तो कबसे गुज़र गया मुझे छू के
खाई पे चलता राही
मौत सी मस्ती का यार भी हूँ

              -घुमंतू पंछी

Friday, January 27, 2012

तेरे मेरे बीच...

इक चिंगारी
शायद बरसों से दबी हुई आग से उठी
सही और गलत के धुंए को चीरती

कभी हाथ ना आने वाला धुआं
ज्यादा नज़दीक जाने पर जो जला देगा
मुट्ठी में घर नहीं है जिसका

होंठों से बस महसूस होता है जो
मोहताज नहीं जो रिश्ते का
क्योंकि जल के खाख ही होना है उसे

और फिर से जल जाना
और बस यूँ ही
बार बार जलना

जो भडकता है बार बार
पर वजूद की नहीं उसे ज़रूरत
हवा सा बेलगाम

छुओ तो आराम
बोलो तो बदनाम
दुनिया में अनजान
तेरी मेरी पहचान

ऐसा है ये
जो है हमारे बीच

नाम इसका जानते हैं बस
मैं
और तू

ऐसा है ये
जो है नींद सा मीठा
और गम सा गहरा

यही तो है बस
जो भी है ये

तेरे मेरे बीच
जिसे छूते हैं बस
मैं
और तू...

-घुमंतू पंछी

Wednesday, January 25, 2012

चमड़ी की चाह, प्यार का ढोंग!

स्पर्श के मोहताज हम तुम,
चमड़ी को चाहने वाले..
सुरंग तक की बस चाहें दौड,
या मांगे बांस की मार...

बीस मिनट का नाच,
फिर दस मिनट का जश्न.
दो पल का जादू,
फिर सुकून की लंबी सांस.

इसी मोह में,
सारे पहर,
दिन, दोपहर, शाम...

नस फाड़, कमर तोड़, छाती चीर,
खींचना है किसी तरह, कामना के कुए से,
सबको वही जाम.

बाज़ार से हो या व्यहवार से,
सोना चाहें बस किसी के साथ...

सारी दौड़, सारा पसीना,
आशिक और हसीना,
सब बिस्तर के नाम.

पर बोर्ड लटका है प्यार का,
सबके कमरों में,
अपने यार के नाम!

निकल आओ नकाबों से,
अश्लील कहलाती किताबों से,
उठा लो सत्य की ठेकेदारी,
समाज के ठेकेदारों के नाम!

शरीर जो कहता है
उसे भी पाक समझो
कम से कम अकेलेपन में,
खुद को बेनकाब समझो..

कम से कम अकेलेपन में,
खुद को बेनकाब समझो...

- घुमंतू पंछी

धुंए से दोस्ताना है मेरा...

जाने क्यूँ खुला आसमान झूठा सा लगता है
जाने क्यूँ हर सीधी सड़क गलत रास्ता लगती है
जाने क्यूँ कोई सुलझी बात घर नहीं करती मन में

शायद कुरेदना जिंदगी को
शौक पुराना है मेरा
जवाब जहाँ छुपे बैठे हैं,
उस धुंए से दोस्ताना है मेरा..

नज़र नहीं आती शरीफों में शराफत,
पर घुमक्कडों में ठिकाने ढूंढ लेता हूँ

जाने कैसे लोगों में आना जाना है मेरा,
खिड़कियों से दोस्ती,
दरवाजों से रिश्ता पराया है मेरा.

शायद कुरेदना जिंदगी को,
इक शौक पुराना है मेरा
जवाब जहाँ छुपे बैठे हैं,
उस धुंए से दोस्ताना है मेरा...

-घुमंतू पंछी